बिहार में पंचायती राज व्यवस्था एवं शहरी निकाय – Class 10th Social Science ( सामाजिक विज्ञान ) Notes in Hindi

 बिहार में स्थानीय शासन के अंतर्गत पंचायती राज्य व्यवस्था एवं शहरी निकाय के बारे में विस्तार से अध्ययन करेंगे | 

बिहार में पंचायती राज व्यवस्था (स्थानीय शासन) 

स्थानीय शासन में आम आदमी के जीवन से जुड़े मामले एवं बुनियादी आवश्यकताओं के बारे में फैलना लेना शामिल होता है | स्थानीय शासन को मजबूत करना लोकतंत्र को मजबूत बनाने के समान है | 

भारत में स्थानीय शासन की शुरुआत 2 अक्टूबर, 1959 को राजस्थान के नागौर जिला में तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने किया था | पर स्थानीय शासन की विस्ताविक स्वरूप 1992 में 73 वाँ संविधान संशोधन के बाद देखने को मिलाती हैं | बिहार सरकार ने पंचायती राज व्यवस्था में परिवर्तन कर बिहार पंचायती राज अधिनियम 2006 बनाया है | देश में स्थानीय शासन की स्थिति इस प्रकार हो गयी है – 

  1. पंचायती राज व्यवस्था तीन स्तरीय – ग्राम स्तर, प्रखंड स्तर एवं जिला स्तर पर होगी | उसी तरह शहरी निकायों में भी तीन प्रकार की संस्थाएँ होगी – नगर पंचायत, नगर परिषद एवं नगर निगम | 
  2. स्थानीय शासन की सभी संस्थाओं में अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के लिए उनकी जनसंख्या के अनुपात में स्थान आरक्षित रहेंगे | 
  3. स्थानीय शासन की सभी संस्थाओं के लिए प्रत्यक्ष चुनाव होंगे | 
  4. स्थानीय शासन की सभी संस्थाओं के सभी निर्वाचित सदस्यों का कार्यकाल 5 वर्षों का होगा | 
  5. स्थानीय शासन की सभी संस्थाओं के निर्वाचन के लिए एक स्वतंत्र राज्य निर्वाचन आयोग स्थापित किया जाएगा | 
  6. स्थानीय शासन की संस्थाओं के लिए समुचित धन की व्यवस्था राज्य वित्त आयोग द्वारा की जाएगी | 

बिहार में पंचायती राज शासन-व्यवस्था का स्वरूप त्रिस्तरीय है – 

  1. ग्राम स्तर पर ग्राम पंचायत, 
  2. प्रखंड स्तर पर पंचायत समिति,
  3. जिला स्तर पर जिला परिषद | 

ग्राम पंचायत 

ग्राम पंचायत की संरचना – 

ग्राम पंचायत ग्रामीण क्षेत्रों की स्वायत संस्थाओं में सबसे निचला स्तर है | ग्राम पंचायत में लगभग 500 की आबादी की जनसंख्या के आधार पर एक पंचायत क्षेत्र होता है, जिसे आमतौर पर वार्ड कहा जाता है | प्रत्येक वार्ड से एक-एक सदस्य जनता द्वारा – प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित होते हैं | इस तरह प्रत्येक ग्राम पंचायत में 14 से 20 वार्ड प्रतिनिधि हो सकते हैं | प्रत्येक ग्राम पंचायत में प्रधान रूप में एक मुखिया होता है | 

            प्रत्येक ग्राम पंचायत में राज्य सरकार की ओर से एक कर्मचारी नियुक्त होता है, जिसे पंचायत सेवक कहते हैं | पंचायत सेवक ग्राम पंचायत का सचिव भी होता है | 

ग्राम पंचायत की अवधि – 

प्रयेक ग्राम पंचायत का कार्यकाल 5 वर्षों का होता है | यह अवधि ग्राम पंचायत के प्रथम बैठक से तय होता है | 

ग्राम पंचायत की बैठक – 

प्रत्येक ग्राम पंचायत अपने कार्यों के निष्पादन के लिए ग्राम पंचायत की बैठक करती है | बैठक की तिथि मुखिया द्वारा तय की जाती है | प्रत्येक दो माह की अवधि पर ग्राम पंचायत की एक बार बैठक अवश्य होनी चाहिए | 

ग्राम पंचायत के कार्य – 

 ग्राम पंचायत ग्रामीण क्षेत्र की स्थानीय शासन की सबसे महत्त्वपूर्ण इकाई है | ग्राम पंचायत के अधीन 29 महत्त्वपूर्ण विषय रखे गये हैं, जिससे संबंधित कार्य ग्राम पंचायत को करने पड़ते हैं | ग्राम पंचायत के कुछ महत्त्वपूर्ण कार्य निम्नलिखित हैं – 

सामान्य कार्य – इसके अंतर्गत पंचायत क्षेत्र के विकास के लिए वार्षिक योजना तैयार करना और वार्षिक बजट बनाना, प्राकृतिक आपदा के समय लोगों की सहायता करना, सार्वजनिक संपत्ति पर से कब्ज़ा को हटाना, स्वैच्छिक श्रमिकों को संगठित करना, समुदायिक कार्यों में सहयोग करना आदि आते हैं | 

ग्राम पंचायत की शक्तियाँ – 

ग्राम पंचायत को कुछ महत्त्वपूर्ण शक्तियाँ भी प्राप्त हैं | 

  1. ग्राम पंचायत कुछ संपत्ति का अर्जन कर सकती है एवं इससे संबंधित संविदा भी कर सकती है | 
  2. ग्राम पंचायत कुछ टैक्स भी लगा सकती है जैसे – जल पर टैक्स, मेले, हाट-बाजार आदि का टैक्स | 
  3. ग्राम पंचायत राज्य वित्त आयोग की सिफारिश पर संचित निधि से अनुदान भी प्राप्त कर सकती है | 

ग्राम पंचायत की आय के स्त्रोत 

  1. टैक्स – ग्राम पंचायत होल्डिंग, व्यापार, व्यवसाय, नियोजन आदि पर टैक्स लगाकर आमदनी करती है | 
  2. फीस और दर (रेंट) – ग्राम पंचायत वाहनों के निबंधन पर फीस लगाकर एवं तीर्थ स्थानों, हाटों मेलों पर रेंट लगाकर जैसे – जलकर प्रकाश शुल्क, स्वछता शुल्क आदि के माध्यम से आय की पूर्ति करती है | 
  3. वित्तीय अनुदान – ग्राम पंचायत राज्य वित आयोग की अनुशंसा के आधार पर राज्य सरकार की संचित निधि से अनुदान प्राप्त करती है | 

ग्राम पंचायत के प्रमुख अंग 

बिहार कमे ग्राम पंचायत के चार प्रमुख अंग हैं – 

  1. ग्रामसभा, 
  2. मुखिया, 
  3. ग्राम रक्षादल, 
  4. ग्राम कचहरी, 
  1. ग्रामसभा – ग्रामसभा, ग्राम पंचायत में विधायिका का काम करती है | एक ग्राम पंचायत के सभी व्यस्क नागरिक ग्रामसभा के सदस्य होते हैं | ग्रामसभा की बैठक समय-समय पर होते रहते हैं | परंतु किन्हीं दो बैठकों के बीच 3 महीने से अधिक का समय नहीं होना चाहिए, अर्थात् ग्रामसभा की बैठक वर्ष भर में कम से कम चार बार अवश्य होगी | 

ग्रामसभा के कार्य – ग्रामसभा के मुख्य कार्य हैं – गाँव के विकास योजनाओं को लागू करने में सहायता प्रदान करना, स्वैच्छिक श्रम सहयोग प्रदान करना, शिक्षा, परिवार कल्याण जैसी योजनाओं को आगे बढ़ने में सहयोग करना, गाँव में समाज के सभी वर्गों के बीच एकता और सहयों बढ़ाना आदि | 

II. मुखिया – मुखिया ग्राम पंचायत का प्रधान होता है | मुखिया उसी ग्राम पंचायत के व्यस्क मतदाताओं द्वारा प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित होता है | मुखिया के पद के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई है | मुखिया के कार्यों में सहायता प्रदान करने के लिए एवं उसकी अनुपस्थिति में ग्राम पंचायत के कार्यों के संचालन के लिए प्रत्येक ग्राम पंचायत में एक उप-मुखिया होता है | 

      मुखिया एवं उप-मुखिया का कार्यकाल 5 वर्षों का होता है | 

मुखिया के कार्य एवं अधिकार – मुखिया ग्राम पंचायत का प्रधान होता है, मुखिया ग्राम सभा एवं ग्राम पंचायत की बैठक बुलाता है और उस बैठक की अध्यक्षता करता है | 

III. ग्राम रक्षादल – गाँवों में सुरक्षा व्यवस्था के लिए ग्राम पंचायत में माध्यम से पुलिस व्यवस्था की जाती है | इस व्यवस्था में 18 से 30 आयु वर्ग के युवक शामिल होते हैं | सुरक्षा दल में शामिल सभी लोग ग्राम रक्षादल के सदस्य कहलाते हैं | ग्राम रक्षादल एक एक नेता होता है जिसे दलपति कहते हैं | 

IV. ग्राम कचहरी – बिहार में प्रत्येक ग्राम पंचयत में न्यायिक कार्यों को निपटाने के लिए ग्राम कचहरी की स्थापना की गई है | ग्राम कचहरी में एक सरपंच होता है, जो ग्राम पंचायत के वयस्क मतदाता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित होता है | ग्राम पंचायत में प्रत्येक 500 की आबादी पर एक पंच का निर्वाचन वयस्क मतदाता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से होता है | सरपंच एवं पंच के चुनाव में भी आरक्षण की व्यवस्था की गई है | 

सरपंच के अधिकार एवं कार्य – सरपंच ग्राम कचहरी की बैठक की अध्यक्षता करता है | 

ग्राम कचहरी के कार्यकरण – सरपंच ग्राम कचहरी का प्रभारी होता है | ग्राम कचहरी को दीवानी एवं फौजदारी दोनों क्षेत्रों में अधिकार प्राप्त है | ग्राम कचहरी में एक न्याय मित्र और एक न्याय सचिव भी होता है | न्याय मित्र सरपंच के कार्यों में सहयोग देता है, जबकि न्याय सचिव ग्राम कचहरी के कागजातों को सुरक्षित रखता है | 

Note – 

फौजदारी मामला (क्रिमिनल केस) – ऐसा मामला जो लड़ाई-झगडा, चोरी डकैती एवं हत्या से संबंधित हो, उसे फौजदारी मामला कहते हैं | 

दीवानी मामला (सिविल केस) – ऐसा मामला जो धन-सम्पत्ति एवं जमीन जायदाद से संबंधित हो, उसे दीवानी मामला कहते हैं | 

पंचायत समिति 

पंचायत समिति ग्राम पंचायत एवं जिला परिषद के बीच की निकाय है | बिहार में प्रत्येक 5,000 की आबादी पर एक पंचायत समिति का सदस्य होगा | मतदात द्वारा होता है | पंचायत समिति में एक प्रमुख एवं एक उप-प्रमुख होता है | प्रमुख एवं उप-प्रमुख का निर्वाचन पंचायत समिति के सदस्य अपने बीच से करते हैं | 

प्रखंड विकास पदाधिकारी (BDO) – पंचायत समिति का पदेन सचिव होता है | वह प्रमुख के आदेश से पंचायत समिति की बैठक बुलाता है | वह पंचायत समिति के निर्णयों को क्रियान्वित करता है तथा पंचायतों का निरिक्षण करता है | 

पंचायत समिति की बैठक – पंचायत समिति की बैठक दो माह में कम-से-कम एक बार अवश्य होती है अर्थात् एक वर्ष में कम-से-कम 6 बार बैठक अवश्य होती है | 

जिला परिषद 

बिहार पंचायती राज अधिनियम के अनुसार प्रत्येक जिला के लिए एक जिला परिषद होगा | प्रत्येक 50,000 की जनसंख्या पर जिला परिषद का एक सदस्य चुना जाता है | जि ला परिषद के सदस्य वयस्क मताधिकार के आधार पर प्रत्यक्ष रूप से चुने जाते हैं | 

     जिला परिषद का कार्यकाल 5 वर्षों का होता है | प्रत्येक जिला परिषद में एक अध्यक्ष एवं एक उपाध्यक्ष होता है | अध्यक्ष एवं उपाध्यक्ष का चुनाव जिअला परिषद के सदस्य अपने बीच से किसी सदस्य को करते हैं | 

जिला परिषद के कार्य एवं शक्तियाँ – पंचायती राज संस्थानों को संवैधानिक दर्जा प्राप्त होने के बाद जिला परिषद का महत्त्व और बढ़ गया है | अब जिला परिषद निम्न कार्य एवं शक्तियों के लिए जिम्मेदार हो गया है, जैसे कृषि एवं बागवानी का विकास, सिंचाई का विकास, पशुपालन का विकास, ग्रामीण सड़कें एवं अंतर्देशीय जलमार्ग का विकास, शिक्षा का विकास, कमजोर वर्गों का कल्याण आदि | 

नगरीय शासन व्यवस्था 

नगरीय स्वायत शासन की संस्थाओं को ‘नगरपालिका’ का नाम दिया गया | नगरपालिका में मुख्यत: तीन प्रकार की संस्थाएँ होती हैं – 

नगर पंचायत —  नगर परिषद — नगर निगम 

  1. नगर पंचायत – ऐसा क्षेत्र जो गाँव से शहर में परिवर्तित हो रहा है तो वहाँ की शासन व्यवस्था संचालन के लिए नगर पंचायत का गठन किया जाता है | जनसंख्या के हिसाब से जिस शहर की जनसंख्या 12,000 से 40,000 के बीच हो, तो वहाँ नगर पंचायत की स्थापना की जाती है | साधारणत: नगर पंचायत में सदस्यों की संख्या 10 से 25 तक हो सकती है | नगर पंचायत के सदस्यों का कार्यकाल 5 वर्षों का होता है | नगर पंचायत में एक अध्यक्ष एवं एक उपाध्यक्ष होता है, जिसका निर्वाचन नगर पंचायत के सदस्य अपने बीच से करते हैं | 
  2. नगर परिषद – नगर परिषद नगर पंचायत से बड़ा होता है | नगर परिषद वैसे शहरों में गठन किया जाता है जिसकी जनसंख्या 40,000 से अधिक है | इसके साथ ही इन शहरों की जनसंख्या का घनत्व प्रतिवर्ग किलोमीटर 450 व्यक्ति होना चाहिए | 
  1. नगर पार्षद्, 
  2. समितियाँ, 
  3. अध्यक्ष एवं उपाध्यक्ष, 
  4. कार्यपालक पदाधिकारी | 
  1. नगर पर्षद् – नगर पार्षद् नगर पंचायत का सबसे महत्त्वपूर्ण अंग है | इसके सदस्य नगर पार्षद् या कमिश्नर कहलाते हैं | नगर पर्षद में दो तरह के सदस्य होते हैं | पहली तरह के सदस्य वैसे सदस्य होते हैं जो वयस्क मतदाता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित होते हैं | ऐसे सदस्यों की संख्या कुल सदस्यों में से अस्सी होते हैं | ऐसे सदस्यों की संख्या कुल सदस्यों में से अस्सी प्रतिशत होते हैं और शेष बीस प्रतिशत सदस्य मनोनीत होते हैं | नगर पार्षद में एक अध्यक्ष एवं एक उपाध्यक्ष होते हैं | 
  2. समितियाँ – नगर परिषद अपने क्षेत्रों के विकास के लिए महत्त्वपूर्ण रूप से उत्तरदायी होता है | नगर परिषद अपने कार्यों का सुचारू रूप से उत्तरदायी होता है | नगर परिषद अपने कार्यों का सुचारू से संचालन समितियों के माध्यम से करता है | इन समितियों में 3 से 5 सदस्य होते हैं | 
  3. अध्यक्ष एवं उपाध्यक्ष – नगर परिषद में एक अध्यक्ष एवं एक उपाध्यक्ष होता है | अश्यक्ष को मुख्य पार्षद एवं उपाध्यक्ष को उपमुख्य पार्षद कहा जाता है | इनका कार्यकाल पाँच वर्षों का होता है | 
  4. कर्यपालक पदाधिकारी – नगर परिषद में राज्य सरकार द्वारा नियुक्त एक कार्यपालक पदाधिक्रारी होता है | 

नगर परिषद के कार्य – बिहार में नगरीय शासन-व्यवस्था के अंतर्गत नगर परिषद एक महत्त्वपूर्ण इकाई है, जो मध्यम स्तर के शहरों के विकास एवं प्रशासनिक व्यवस्था के संचालन का जिम्मेदार होता है | इसीलिए नगर परिषद को बहुत से कार्य करने पड़ते हैं | 

             नगर परिषद के कार्यों को दो श्रेणीयों में रखा जा सकता है – अनिवार्य कार्य एवं ऐच्छिक कार्य | 

नगर परिषद के अनिवार्य कार्य हैं – 

  1. शुद्ध पेयजल की व्यवस्था करना, 
  2. नालियों एवं गलियों की सफाई की व्यवस्था करना, 
  3. प्राथमिक शिक्षा का प्रबंध करना और उसपर नियंत्रण रखना, 
  4. अस्पताल की व्यवस्था करना, 
  5. आग एवं महामारी जैसे प्राकृतिक आपदा से सुरक्षा प्रदान करना, 
  6. श्मशान घाट का प्रबंध करना, 
  7. जन्म एवं मृत्यु का पंजीकरण करना, 
  8. शहर में रोशनी का प्रबंध करना, 
  9. सड़क का निर्माण करना एवं उसकी मरम्मत करना आदि | 

 ऐच्छिक कार्य – नगर परिषद को ऐच्छिक कार्य के अंतर्गत निम्नलिखित कार्य करने पड़ते हैं – 

  1. शहर के अंदर गंदे क्षेत्र को बसने योग्य बनाना, 
  2. गरीबों के लिए घर बनवाना, 
  3. मनोरंजन गृह एवं पार्क बनाना,
  4. पुस्तकालय का प्रबंध करना, 
  5. नई सड़क बनाना आदि | 

नगर परिषद की आय के स्त्रोत – नगर परिषद अपनी आय के लिए विभिन्न कर, पानी कर, बाजार कर आदि | 

3. नगर निगम – भारत में नगर निगम की स्थापना 3 लाख की जनसंख्या पर की जाती है, अर्थात् जिस शहर की जनसंख्या तीन लाख से अधिक होती है, 

नगर निगम के चार प्रमुख अंग होते हैं – 

  1. निगम परिषद, 
  2. सशक्त स्थानीय समिति,
  3. परामर्शदात्री समितियाँ, 
  4. नगर आयुक्त | 
  1. निगम परिषद – नगर निगम को जनसंख्या के आधार पर विभिन्न क्षेत्रों में बाँट दिया जाता है, जिसे वार्ड कहा जाता है | प्रत्येक वार्ड से एक-एक प्रतिनिधि चुनाव जीतकर आते हैं जिन्हें वार्ड पार्षद या वार्ड काउंसिलर कहा जाता है | 

महापौर एवं उपमहापौर – नगर निगम में एक महापौर एवं उपमहापौर होते हैं | महापौर को मेयर एवं उपमहापौर को डिप्टी मेयर भी कहा जाता है | महापौर एवं उपमहापौर का चुनाव निगम परिषद के सदस्य अपने बीच से कहते हैं | महापौर  शहर का प्रथम नागरिक होता है | इसीलिए वह शहर में आए अतिथियों का स्वागत नगर की ओर से करता है | महापौर की अनुपस्थिति में उपमहापौर महापौर का कार्य देखता है | 

        महापौर एवं उपमहापौर दोनों का कार्यकाल 5 वर्षों का होता है | 

II. सशक्त स्थानीय समिति – नगर निगम का दूसरा महत्त्वपूर्ण अंग सशक्त स्थानीय समिति होती है | 

III. परामर्शदात्री समितियाँ – नगर निगम में कुछ ऐसी समितियाँ भी होती हैं जो समय-समय पर आवश्यकतानुसार नगर निगम को परामर्श देती रहती हैं, जैसे – शिक्षा समिति, जन-स्वास्थ्य समिति, उद्यान समिति आदि | 

IV. नगर आयुक्त – नगर आयुक्त की नियुक्ति राज्य सरकार द्वारा की जाती है | नगर आयुक्त भारतीय प्रशासनिक सेवा (IAS) स्तर का पदाधिकारी होता है | यह नगर निगम का मुख्य प्रशासक होता है | 

नगर निगम के कार्य – नगर निगम का कार्य काफी व्यापक है | इसे अनेक प्रकार के कार्य सौंपे गये हैं, जो निम्नलिखित हैं – 

  1. श्मशानों, बुचड़खानों एवं उच्च माध्यमिक शिक्षा की व्यवस्था करना तथा पुस्तकालय एवं वाचनालय का प्रबंध करना | 
  2. सड़कों पर रोशनी, नाली गली एवं सड़क की सफाई का प्रबंध करना एवं खतरनाक जानवरों से सुरक्षा का प्रबंध करना | 
  3. निगम के द्वारा अस्पताल एवं दवाखाना का प्रबंध करना | 
  4. शौचालय, पेशाबखाना, पार्क, मनोरंजन गृह, धर्मशाला एवं रैन बसेरा का प्रबंध करना | 
  5. लोगों के लिए शुद्ध पेय जल उपलब्ध करवाना आदि | 

नगर निगम की आय के साधन – नगर निगम टैक्स लगाकर आय प्राप्त करता है, जैसे – मकान पर कर (टैक्स), शौचालय टैक्स, पानी पर टैक्स आदि | नगर निगम शुल्क लगाकर भी आय प्राप्त करता है, जैसे – गाड़ी, रिक्शा, साइकिल, ठेला | 

स्थानीय शासन-व्यवस्था से लाभ 

भारत में स्थानीय शासन-व्यवस्था सभी लोगों को शासन-व्यवस्था में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करने का सबसे उत्तम तरीका माना जाता है | स्थानीय शासन-व्यवस्था के अनेक लाभ हैं, जो निम्नलिखित हैं – 

  1. स्थानीय शासन-व्यवस्था से शासन की पहुँच आम आदमी तक हो गयी है | 
  2. महात्मा गाँधी के विचारों के अनुरूप गाँव में स्वराज्य की स्थापना हो सकी है | 
  3. स्थानीय स्तर की समस्याएँ स्थानीय शासन में आसानी से सुलझ जाती हैं | 
  4. स्थानीय विकास का निर्मय अब स्थनीय स्तर पर ही होता है | 
  5. स्थानीय शासन से विकास की गति तेजी आने से रोजगार के अवसरों में भी वृद्धि हुई है | 

स्थानीय शासन-व्यवस्था को मजबूत बनाने हेतु सुझाव – स्थानीय शासन-व्यवस्था को मजबूत बनाने हेतु निम्नलिखित सुझाव दिये जा सकते हैं – 

  1. प्रत्येक जिला में शहरी एवं ग्रामीण निकायों के प्रतिनिधियों को मिलाकर एक जिला कौंसिल का गठन किया जाय जो इन संस्थाओं की समस्याओं का समाधान करे एवं समय-समय पर इन संबंध में सरकार को आवश्यक सुझाव दे सके | 
  2. स्थानीय शासन के जनप्रतिनिधियों एवं कर्मचारियों के लिए प्रशिक्षण की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए | खासकर महिला प्रतिनिधियों को जागरुक करने के लिए विशेष प्रशिक्षण की व्यवस्था होनी चाहिए | 
  3. राज्य सरकार जिला स्तर पर अंकेक्षण समितियों का गठन करे जो स्थानीय संस्थाओं की वित्तीय अनियमिताओं पर नियंत्रण रख सके | 
  4. स्थानीय निकायों के जनप्रतिनिधियों एवं कर्मियों के विरुद्ध कुप्रशासन, संबंधी शिकायत पर सुनवाई करने के लिए लोकायुक्त जैसी एक मजबूत संस्था होनी चाहिए | 
  5. स्थानीय संस्थाओं को अधिक से अधिक पारदर्शी एवं जबावदेह होना चाहिए | 
  6. पंचायतों के पास अपने कर्मचारियों की भर्ती एवं उनकी सेवा-शर्त तय करने की शक्ति होनी चाहिए | 
  7. राज्य सरकार पंचायती राज संस्थाओं द्वारा पारित प्रस्ताव पर गंभीरतापूर्वक विचार करे और उस पर उचित निर्णय ले, न कि उसे रद्द करे या निलंबित करे | 
  8. पंचायती राज संस्थाओं को और अधिक मजबूत एवं कारगर होने के लिए ग्रामीण पुलिस एवं अन्य नियमाकीय संस्थाओं का गठन होना चाहिए | 
  9. ग्राम एवं पंचायत समिति स्तर पर सूचना केंद्र स्थापित किया जाना चाहिए | 
  10. स्थानीय संस्थाओं को देश एवं राज्यों की राजनीति से दूर रखा जाना चाहिए | 

स्थानीय संस्थाओं को देश एवं राज्यों की राजनीति से दूर रखा जाना चाहिए ग्राम एवं पंचायत समिति स्तर पर सूचना कंडे स्थापिएत किया जाना चाहिए पंचायती राज संस्थ्काप को और अधिक मजबूत एवं कारगर होने के लिए ग्रामीण पुलिस एवं अन्य नियमाकैय संस्थाओं का द्गातःन होअना चहि८ए राज्यसरकार पंचायती एवं राज्य संस्ताओं द्वारा क्परित प्रस्ताव पर गंभिर्त्क़पूर्वक विचार करे और उस प्र 

 


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